Monday, March 3, 2008

पुस्तक-समीक्षा--- मंच-मचान

पुस्तक-मंच-मचान
लेखक- अशोक चक्रधर
प्रकाशक- वाणी प्रकाशन
21-ए, दरियागंज, नई दिल्ली-11002
फोन-011-23273167, 41562622

फैक्स-011-23275710



अशोक चक्रधर एक ऐसा नाम है, जो आज कविसम्मेलन नामक इंस्टीट्यूशन की पहचान है। उनका नाम मात्र ही कवि सम्मेलन की सफलता की गारंटी बन जाता है। अब तक वे हज़ारों कवि सम्मेलनों के मंचों पर चढ़े होंगे लेकिन उतरे आज तक नहीं हैं। उनकी बढ़त लगातार जारी है। इस बढ़त के पीछे राज़ क्या है? इसका एक उत्तर ये हो सकता है कि वे कविसम्मेलन की इस पुरातन परंपरा की रग-रग से परिचित हैं। उन्होंने अपने पुराने कवियों से बहुत कुछ सीखा है और नये कवियों को बहुत कुछ सिखाया है। सीखने और सिखाने के प्रोसेस को दर्शाने वाली पुस्तक है- मंच-मचान।

मंच के आगे और मंच के पीछे होने वाली सभी गतिविधियों के जानने का एक मात्र मौका देती है ये पुस्तक। आज की युवा पीढ़ी जो कि वाचिक परंपरा को बहुत ज़्यादा नहीं जानती है, उसके लिए ये एक खोज है, एक उपकरण है जिससे वाचिक पंरपरा को अन्दर तक जाना जा सकता है।

इस पुस्तक में कुल अट्ठाईस लेख हैं। सभी लेखों में वाचिक परंपरा के नेचर के दर्शन होते हैं। कुछ में वरिष्ठ कवियों के साथ घटित संस्मरणात्मक लेख हैं तो कुछ कविसम्मेलन की परंपरा और उस में आए बदलाव का ब्यौरा है, जैसे ई-कविसम्मेलन का कांसैप्ट। हर लेख के अंत में कोई कविता या कवितांश है जिससे गद्य के साथ पद्य का भी मज़ा आता है। सभी लेख ज़िन्दगी और वाचिक परंपरा के बारीक से बारीक पहलुओं को दर्शाते हैं। साथ के साथ जीवन और हिन्दी के ज्ञान को भी बढ़ाते हैं।

‘मंच-मचान’ वाचिक परंपरा के हर दौर को दर्शाती है क्योंकि लेखक अपने बचपन से ही कवि सम्मेलनों से परिचित थे। अशोक जी के पिता ‘प्रगल्भ’ जी एक बहुत मिलनसार कवि थे। जैसा कि लेखक ने लिखा है कि ‘पहले कवि लोग सीधे मंच पर नहीं पहुंचते थे। जिस शहर में कवि सम्मेलन हो रहा है, वहां के आत्मीय-अंतरंगों के घर पहले पहुंचते थे।‘ ठीक उसी तरह अशोक जी के घर पर भी लगता था बड़े-बड़े कवियों का जमघट। और फिर हाफ-पैंट पहने वो बालक जो कि सदा तत्पर रहता था कवियों कि सेवा में, छुप-छुपकर कवियों के बीच में होने वाले संवादों को सुना करता था।
‘मंच-मचान’ में अशोक चक्रधर ने न केवल अपने समकालीन कवियों के साथ जुड़े प्रसंगों का उल्लेख किया है बल्कि कुछ वरिष्ठ कवियों, जैसे- डॉ. हरिवंशराय बच्चन, पं. गोपाल प्रसाद व्यास, श्री बलबीर रंग, श्री काका हाथरसी, श्री मुकुट बिहारी सरोज, श्री गोपाल दास नीरज, श्री शरद जोशी, श्री भवानी प्रसाद मिश्र आदि के साथ घटित हुए प्रसंगों का भी उल्लेख किया है।

‘मंच-मचान’ में लिखा हर एक संस्मरण कल को आज से जोड़ने की क्षमता रखता है। आज जो हमारे बीच हैं और जो नहीं हैं, सभी को एक साथ जाना जा सकता है मंच की मचान से। जिस पर चढ़ कर लेखक ने यादों की बदलियों से खूब रस वर्षा की है।

यहां पर विशेष तौर पर एक लेख का उल्लेख करना चाहूंगी जिसका शीर्षक है ‘क्या होती है थेथरई मलाई’। ये शब्द धूमिल जी के हैं, थेथरई का मतलब तो स्वयं लेखक भी नहीं जानते पर ये उस दौर का आईना है जब हमारे नौजवान कविसम्मेलनों से मुंह मोड़ रहे थे और मार्क्सवाद की आंधी सभी को अपने साथ ले जा रही थी, लेखक स्वयं भी उनमें से एक थे, कविसम्मेलनों से विमुख, नये-नये प्रगतिवादी। आज ही क्रांति आएगी और कल सब बदल जाएगा। कुछ पंक्तियां पर गौर फरमाए-
यमदूत यमराज को रिपोर्ट सुना रहा था,
यमराज को गुस्सा आ रहा था-
क्या कहा, ये भी भूख से मरा,
क्या बकता है?
भूख से कोई कैसे मर सकता है?
अंत की कुछ पंक्तियां
यमराज सुनकर
पलभर को हुए उतावले,
फिर बोले- बावले!
ये भूख से नहीं,
कुपोषण से मरा है,
इंसान द्वारा इंसान के
शोषण से मरा है।

वहीं ‘टोटके और उनके घोटके’ में मंच पर कवियों द्वारा प्राय: प्रयोग किए जाने वाले टोटकों का अच्छा-खासा विवरण हैं। ये वहीं टोटके है जिन्हें बोल कर कवि अकसर ढेर सारी तालियां बटोर लेते हैं। स्थिति, टोटका-कथन, जनक एवं विस्तारक, टोटकायु, कथन विस्तार, घोटका-मथन और अंत में निष्कर्ष, सभी डिटेल्स के साथ लेखक ने बड़ी रिसर्च करने के बाद ही इससे लिखा होगा।


हर क्षेत्र में कुछ नया हो रहा है तो फिर कवि सम्मेलन इससे अछूते क्यों रहें, हर क्षेत्र में कम्प्यूटर का प्रयोग हो रहा है तो फिर कवि सम्मेलनों में क्यों नहीं। यहां भी शुरुआत हुई ई-कविसम्मेलन की, जिस पर मुग्ध हुए हमारे लालूजी और पचास-पचास हज़ार दे डाले हर कवि को। इस प्रसंग के बारे में आप पढ़ सकते हैं लेख ‘चलता है पर इतना नहीं’ में। और एक बात बताना यहां ज़रूरी समझती हूं की अशोक जी पहले और एक मात्र ऐसे कवि हैं जिन्होंने कविता को, कविसम्मेलन को कम्प्यूटर से जोड़ा है।


‘तालियों के बीच पसरा सन्नाटा’ में लेखक का कविसम्मेलनों के प्रति गहरा प्रेम नज़र आता है। जब साजिद खान ने अपने बड़बोले अज्ञान की रंगोली सजाई तो उनके विचार सुनकर लेखक के रंग उड़ गए। साजिद का कहना था- ‘कविसम्मेलन बाबा-दादा के ज़माने की चीज़ हो गए हैं’। उन्हें निरुत्तर किया आलोक पुराणिक ने। और कुछ वो निरुत्तर हुए टी.वी पर कविसम्मेलनों के कार्यक्रमों के प्रसारण पर। अशोक जी द्वारा किये गए वाह-वाह कार्यक्रम के 156 एपिसोड इसका एक बहुत बड़ा उदाहरण है।


‘खेल एलपीएम और सीपीएम का’ शीर्षक लेख आज के कवि सम्मेलनों की विसंगति पूर्ण स्थितियों को दर्शाता है। ‘अर्थ रस के व्यभिचारी भाव’ में तेतीस के तेतीस व्यभिचारी भावों का उल्लेख लेखक ने बड़े मज़े से किया है और इतने आसान उदाहरण लिये गये हैं कि थोड़ी बहुत हिन्दी का ज्ञान रखने वाला कोई भी व्यक्ति इन्हें समझ सकता है।


कवि लोग मंच पर जाते हैं और पैसा भी लेते हैं पर अपने आत्मसम्मान के मूल्य पर वे प्राय: समझौता नहीं करते। इसका सबसे बढ़िया उदाहरण देता है लेख ‘ ढिंचिक ढिंचिक वाली रामचरित मानस’। इस लेख में जहां मुकुट बिहारी सरोज जी की बांकी अदा नज़र आती है वहीं अशोक जी का आत्मसम्मान के प्रति जागरूक होना सामने आता है। यहां अशोक जी स्वयं पर भी व्यंग्य करने से नहीं चूकते हैं।

वाचिक परंपरा के अनेक पहलुओं को दर्शाती ये पुस्तक ‘मंच-मचान’ हर कविता प्रेमी को ज़रूर पढ़नी चाहिए। कवियों, कविसम्मेलन की परंपरा और गतिविधियों को जानने का मौका देती है ‘मंच-मचान’। हर वो व्यक्ति जो कि कविता या कविसम्मेलन में रुचि रखता है इस पुस्तक को ज़रूर पसंद करेगा ऐसा मेरा विश्वास है।